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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१९४

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दशम सर्ग

लाखों कोसों पर रहकर भी
पति - समीप तुम रहती हो।
यह फल उन पुण्यो का है,
तुम जिसके वल से महती हो ॥४३।।

क्यों संयोग वाधिका बनती ,
लाखों कोसों की दूरी ॥
क्या होती हैं नही सती की
सकल कामनाये पूरी ? ॥४४॥

ऐसी प्रगति मिली है तुमको ,
अपनी पूत - प्रकृति द्वारा।
है हो गया विदूरित जिससे ,
प्रिय - वियोग - संकट सारा ।।४५।।

सुकृतिवती हो सत्य -सुकृति-फल
सारे - पातक खोता है।
उसके पावन - तम - प्रभाव मे,
बहता रस का सोता है॥४६॥

तुम तो लाखों कोस दूर की ,
अवनी पर आ जाती हो।
फिर भी पति से पृथक न होकर ,
पुलकित वनी दिखाती हो ॥४७॥