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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१९६

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दशम सर्ग

जिसकी आकृति सहज - सुकृति
का वीज हृदय मे वोती है।
जिसकी सरस - वचन की रचना ,
मानस का मल धोती है।॥५३॥

जिसकी मृदु - मुसकान भुवन -
मोहकता की प्रिय - थाती है।
परमानन्द जनकता जननी ,
जिसकी हंसी कहाती है ॥५४॥

भले भले भावों से भर भर ,
जो भूतल को भाते है।
बड़े बड़े लोचन जिसके ,
अनुराग - रँगे दिखलाते है ।।५५।।

जिनकी लोकोत्तर लीलाये,
लोक - ललक की थाती है।
ललित - लालसाओ को विलसे ,
जो उल्लसित बनाती हैं ॥५६॥

आजीवन जिनके चन्द्रानन की -
चकोरिका बनी रही।
जिसकी भव - मोहिनी सुधा प्रति -
दिन पी पी कर मैं निबही ।।५७||