पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२०१

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एकादश सर्ग
रिपुसूदनागमन
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सखी

बादल थे नभ में छाये ।
बदला था रंग समय का ।।
थी प्रकृति भरी करुणा में।
कर उपचय मेघ - निचय का ॥१॥

वे विविध - रूप धारण कर।
नभ - तल में घूम रहे थे।
गिरि के ऊँचे शिखरों को।
गौरव से चूम रहे थे॥२॥

वे कभी स्वयं नग - सम बन ।
थे अद्भुत - दृश्य दिखाते ।।
कर कभी दुंदुभी - वादन ।
चपला को रहे नचाते ॥३॥