पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२०२

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एकादश सर्ग

वे पहन कभी, नीलाम्बर ।
थे बड़े - मुग्धकर बनते ॥
मुक्तावलि बलित अधर मे।
अनुपम - वितान थे तनते ॥४॥

बहुश. - खण्डों मे बॅटकर ।
चलते फिरते दिखलाते ॥
वे कभी नभ - पयोनिधि के।
थे विपुल - पोत बन पाते ॥५॥

वे रंग बिरंगे रवि की।
किरणों से थे बन जाते ।
वे कभी प्रकृति को विलसित ।
नीली - साड़ियाँ पिन्हाते ॥६॥

वे पवन तुरंगम पर चढ़।
थे दूनी - दौड़ लगाते ॥
वे कभी धूप - छाया के।
थे छबिमय - दृश्य दिखाते ॥७॥

घन कभी घेर दिन - मणि को।
थे इतनी घनता पाते ॥
जो द्युति - विहीन कर, दिन को -
थे अमा - समान बनाते ॥८॥