सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६३
एकादश सर्ग

था मलिन कभी होता वह ।
कुछ कान्ति कभी पा जाता ॥
कजलित कभी बनता दिन ।
उज्ज्वल था कभी दिखाता ॥१४॥

कर उसे मलिन - बसना फिर ।
काली ओढ़नी ओढ़ाती ॥
थी प्रकृति कभी वसुधा को।
उज्ज्वल - साटिका पिन्हाती ॥१५॥

जल - विन्दु लसित दल - चय से।
बन बन बहु - कान्त - कलेवर ॥
उत्फुल्ल स्नात - जन से थे।
हो सिक्त सलिल से तरुवर ॥१६॥

आ मंद - पवन के झोंके ।
जब उनको गले लगाते ॥
तब वे नितान्त - पुलकित हो।
थे मुक्तावलि बरसाते ॥१७॥

जब पड़ती हुई फुहारे ।
फूलों को रही रिझाती ॥
जव मचल मचल मारुत से ।
लतिकाये थी लहराती ॥१८॥