पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२१०

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एकादश सर्ग १६९

जिस समय जनकजा घन की।
अवलोक दिव्य - श्यामलता ।।
थीं प्रियतम - ध्यान - निमग्ना।
कर दूर चित्त - आकुलता ॥४४॥

आ उसी समय आलय मे। -
सौमित्र - अनुज ने सादर ।।
पग - वन्दन किया सती का।
बन करुण - भाव से कातर ॥४५।।

सीतादेवी ने उनको।
परमादर से बैठाला ॥
लोचन मे आये जल पर -
नियमन का परदा डाला ॥४६॥

फिर कहा तात बतला दो।
रघुकुल - पुंगव है कैसे ? ॥
जैसे दिन कटते थे क्या।
अब भी कटते है वैसे ? ॥४७॥

क्या कभी याद करते हैं।
मुझ वन - निवासिनी को भी।
उसको जिसका आकुल - मन ।
है पद - पंकज - रज - लोभी ॥४८॥