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वैदेही-वनवास
मैं सारे - गुण जलधर के।
जीवन - धन में पाती हूँ॥
उसकी जैसी ही मृदुता।
अवलोके बलि जाती हूँ॥३९॥
पर निरपराध को प्रियतम -
ने कभी नही कलपाया ।
उनके हाथों से किसने ।
कब कहाँ, व्यर्थ दुख पाया ||४०॥
पुर नगर ग्राम कव उजड़े।
कब , कहाँ आपदा आई ।।
अपवाद । लगाकर यों ही।
कव . जनता गई सताई ॥४१॥
प्रियतम समान जन - रंजन ।
भव - हित - रत कौन दिखाया ।।
पर सुख निमित्त कब किसने ।
दुख को यों गले लगाया ॥४२॥
घन गरज गरज कर बहुधा।
भव का है हृदय कपाता ।।
पर कान्त का मधुर प्रवचन ।
उर में है सुधा बहाता ।।४।।