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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२१८

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एकादश सर्ग

बहने जनहित व्रतरत रह ।
हैं बहुत कुछ स्वदुख भूली ॥
पर सत्संगति दृग - गति की।
है बनी असंगति फूली ॥८४॥

दासियाँ क्या, नगर भर का।
यह है मार्मिक - कण्ठ - स्वर ॥
जब देवी आयेगी, कव -
आयेगा वह वर - बासर ॥८५।।

है अवध शान्त अति - उन्नत ।
बहु - सुख - समृद्धि - परिपूरित ॥
सौभाग्य - धाम सुरपुर - सम ।
रघुकुल - मणि - महिमा मुखरित ॥८६॥

है साम्य - नीति के द्वारा ।
सारा - साम्राज्य - सुशासित ।।
लोकाराधन - मंत्रों से।
हैं जन - पद् परम - प्रभावित ॥८७||

पर कही कही अब भी है।
कुछ हलचल पाई जाती ॥
उत्पात मचा देते हैं।
अब भी कतिपय उत्पाती ।।८८॥

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