पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७६
वैदेही-वनवास

मेरी आकुल - आँखों को।।
कबतक वह कलपायेगी।
उनको रट यही लगी है।
कब जनक - लली आयेगी ॥७९।।

आज्ञानुसार प्रभुवर के।
श्रीमती माण्डवी प्रतिदिन ॥
भगिनियों, दासियों को ले।
उन सब कामों को गिन गिन ॥८०॥

करती रहती हैं सादर।
थीं आप जिन्हें नित करती ॥
सच्चे जी से वे सारे।
दुखियों का दुख हैं हरती ॥८१॥

माताओं की सेवाये। .
है बड़े लगन से होती ।।
फिर भी उनकी ममता नित ।
है आपके लिये रोती ॥८२॥

सब हो पर कोई कैसे ।
भवदीय - हृदय पायेगा।
दिव - सुधा सुधाकर का ही।
वरतर - कर बरसायेगा ॥८३॥