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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२२७

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१८६प
वैदेही-वनवास

मंद मंद मंजुल - गति से चल कर मरुत ।
वर उपवन को सौरभमय था कर रहा ॥
प्राणिमात्र मे तरुओं मे तृण - राजि में।
केलि - निलय वन बहु-विनोद था भर रहा ।।२८॥

धीरे धीरे धुमणि - कान्त - किरणावली।
ज्योतिर्मय थी धरा - धाम को कर रही ॥
खेल रही थी कञ्चन के कल - कलस से।
बहुत विलसती अमल - कमल - दल पर रही ॥२९॥

किसे नहीं करती विमुग्ध थी इस समय ।
बने ठने उपवन की फुलवारी लसी ॥
विकच - कुसुम के व्याज आज उत्फुल्लता।
उसमें आकर मूर्तिमती वन थी वसी ॥३०॥

वेले के अलवेलेपन में आज थी।
किसी बड़े - अलवेले की विलसी छटा ॥
श्याम - घटा - कुसुमावलि श्यामलता मिले।
बनी हुई थी सावन की सरसा घटा ॥३१॥

यदि प्रफुल्ल हो हो कलिकाये कुन्द की।
मधुर हँसी हँस कर थी दॉत निकालती ॥
आशा कर कमनीयतम - कर - स्पर्श की।
फूली नही समाती थी तो मालती ॥३२॥