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द्वादश सर्ग

देवि ! पति - परायणता तन्मयता तथा।
तदीयता ही है उदीयमाना हुई।
उभय सुतों की आकृति मे, कल - कान्ति में -
गात - श्यामता में कर अपनोदन दुई ॥२३॥

आशा है इनकी ही शुचि - अनुभूति से।
शिशुओं में वह बीज हुआ होगा वपित ॥
पितृ - चरण के अति - उदात्त - आचरण का ।
आप उसे ही कर सकती हैं अंकुरित ॥२४॥

जननी केवल है जन जननी ही नहीं।
उसका पद है जीवन का भी जनयिता ।।
उसमें है वह शक्ति सुत - चरित सृजन की।
नही पा सका जिसे प्रकृति - कर से पिता ॥२५॥

इतनी बाते कह मुनिवर जब चुप हुए।
आता जल जब रोक रहे थे सिय - नयन ।।
तपस्विनी - आश्रम - अधीश्वरी तव उठी।
और कहे ये बड़े - मनोमोहक - वचन ॥२६॥

था प्रिय - प्रातःकाल उपा की लालिमा।
रविकर - द्वारा आरंजित थी हो रही ॥
समय के मृदुलतम - अन्तस्तल में विहस ।
प्रकृति - सुन्दरी प्रणय - बीज थी वो रही ॥२७॥