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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२३०

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द्वादश सर्ग

राज - नन्दिनी गिरिजा - पूजन के लिये।
उपवन - पथ से मंदिर में थी जा रही ॥
साथ में रही सुमुखी कई सहेलियाँ।
वे मंगलमय गीतों को थी गा रही ॥४३॥

यह दल पहुंचा जव फुलवारी के निकट ।
नियति ने नियत - समय - महत्ता दी दिखा ॥
प्रकृति - लेखनी ने भावी के भाल पर।
सुन्दर - लेख ललिततम - भावों का लिखा ॥४४॥

राज - नन्दिनी तथा राज - नन्दन नयन ।
मिले अचानक विपुल - विकच - सरसिज बने ।
वीज प्रेम का वपन हुआ तत्काल ही।
दो उर पावन - रसमय - भावों मे सने ॥४५॥

एक बनी श्यामली - मूर्ति की प्रेमिका।
तो द्वितीय उर - मध्य बसी गौरांगिनी ॥
दोनो की चित - वृत्ति अचाञ्चक - पूत रह ।
किसी छलकती छवि के द्वारा थी छिनी ॥४६॥

उपवन था इस समय बना आनन्द - वन ।
सुमनस - मानस हरते थे सारे सुमन ॥
अधिक - हरे हो गये सकल - तरु - पुंज थे।
चहक रहे थे विहग - वृन्द वहु - मुग्ध बन ॥४७॥