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वैदेही-वनवास

राज - नन्दिनी के शुभ - परिणय के समय ।
रचा गया था एक - स्वयंवर - दिव्यतम ॥
रही प्रतिज्ञा उस भव - धनु के भंग की।
जो था गिरि सा गुरु कठोर था वन - सम ॥४८॥

धरणीतल के बड़े - धुरंधर वीर सव ।
जिसको उठा सके न अपार - प्रयत्न
तोड़ उसे कर राज - नन्दिनी का वरण ।
उपवन के अनुरक्त बने जव योग्य - वर ॥४९॥

उसी समय अंकुरित प्रेम का बीज हो।
यथा समय पल्लवित हुआ विस्तृत बना ॥
है विशालता उसकी विश्व - विमोहिनी।
सुर - पादप सा है प्रशस्त उसका तना ॥५०॥

जनता - हित - रता लोक - उपकारिका ।
है नाना - संताप - समूह - विनाशिनी ॥
है सुखदा, वरदा, प्रमोद - उत्पादिका ।
उसकी छाया है क्षिति - तल छवि - वर्द्धिनी ॥५१।।

बड़े - भाग्य से उसी अलौकिक - विटप से।
दो लोकोत्तर - फल अब हैं भू को मिले ॥
देखे रविकुल - रवि के सुत के वर - बदन ।
उसका मानस क्यों न वनज - वन सा खिले ॥५२॥