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त्रयोदश सर्ग,
आत्रेयी की सत्यवती थी प्रिय - सखी।
अतः उन्होंने उसके मुख से थी सुनी।
विदेहजा के विरह - व्यथाओं की कथा।
जो थी वैसी पूता जैसी सुरधुनी ॥१९॥
आत्रेयी थी बुद्धिमती - विदुषी बड़ी।
विरह - वेदना बातें सुन होकर द्रवित ।।
शान्ति - निकेतन मे आई वे एक दिन ।
तपस्विनी - आश्रम - अधीश्वरी के सहित ॥२०॥
जनक - नन्दिनी ने सादर - कर - वन्दना।
बड़े प्रेम से उनको उचितासन दिया ।
फिर यह सविनय परम - मधुर - स्वर से कहा।
बहुत दिनों पर आपने पदार्पण किया ॥२१॥
आत्रेयी बोली हूँ क्षमाधिकारिणी।
आई हूँ मैं आज कुछ कथन के लिये ।।
आपके चरित है अति - पावन दिव्यतम ।
आपको नियति ने है अनुपम - गुण दिये ॥२२॥
अपनी परहित - रता पुनीत - प्रवृत्ति से।
सहज - सदाशयता से सुन्दर - प्रकृति से ॥
लोकरंजिनी - नीति पूत - पति - प्रीति से।
सच्ची - सहृदयता से सहजा - सुकृति से ॥२३॥