पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२००
वैदेही-वनवास
 

'कहा, मानवी हैं देवी सी अर्चिता ।
व्यथिता होते, हैं कर्त्तव्य - परायणा ॥
अश्रु - विन्दुओं में भी है धृति झलकती।
अहित हुए भी रहती है हित - धारणा ॥२४॥

साम्राज्ञी होकर भी सहजा - वृत्ति है।
राजनन्दिनी होकर हैं भव - सेविका ॥
यद्यपि हैं सर्वाधिकारिणी धरा की ।
क्षमामयी हैं तो भी आप ततोधिका ॥२५॥

कभी किसी को दुख पहुंचाती हैं नहीं।
सबको सुख हो यही सोचती हैं सदा ।।
कटु - बाते आनन पर आती ही नही।
आप सी न अवलोकी अन्य प्रियम्वदा ।।२६।।

नवनीतोपम कोमलता के साथ ही।
अन्तस्तल में अतुल - विमलता है बसी।
सात्विकता - सितता से हो उद्भासिता।
. वही श्यामली - मूर्ति किसी की है लसी ॥२७॥

देवि ! आप वास्तव में हैं पति - देवता ।
आप वास्तविकता की सच्ची - स्फूर्ति हैं।
हैं प्रतिपत्ति प्रथित - स्वर्गीय - विभूति की।
आप सत्यता की, शिवता की मूर्ति हैं ।।२८।।