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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२४२

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त्रयोदश सर्ग

किन्तु देखती हूँ मैं जीवन आपका ।
प्रायः है आवरित रहा आपत्ति से ।।
ले लीजिये विवाह - काल ही उस समय ।
रहा स्वयंवर ग्रसित विचित्र - विपत्ति से ॥२९॥

था विवाह आधीन शंभु - धनु भंग के।
किन्तु तोड़ने से वह तो टूटा नही ।।
वसुंधरा के वीर थके बहु - यत्न कर।
किन्तु विफलता का कलंक छूटा नहीं ॥३०॥

देख यह दशा हुए विदेह बहुत - विकल ।
हुई आपकी जननी व्यथिता, चिन्तिता, ॥
आप रही रघु - पुंगव - बदन विलोकती।
कोमलता अवलोक रही अति - शंकिता ॥३१॥

राम - मृदुल - कर छूते ही टूटा धनुष ।
लोग हुए उत्फुल्ल दूर चिन्ता हुई।
किन्तु कलेजों में असफल - नृप - वृन्द के।
चुभने लगी अचानक ईर्पा की सुई ॥३२॥

कहने लगे अनेक नृपति हो संगठित ।
परिणय होगा नही टूटने से धनुप ।।
समर भयंकर होगा महिजा के लिये।
असि - धारा सुर - सरिता काटेगी कलुष ॥३३॥