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त्रयोदश सर्ग
मलिन - मानसों की मलीनता दूर कर।
भरती रहती है भूतल में भव्यता ।।
है फूटती दिखाती संकट - तिमिर मे।
दिव्य - जनों या देवी ही की दिव्यता ॥६९।।
आश्रम की कुछ ब्रह्मचारिणी - मूर्तियाँ।
ऐसी हैं जिनमें है भौतिकता भरी।
किन्तु आपके लोकोत्तर - आदर्श ने।
उनकी कितनी बुरी - वृत्तियाँ है हरी ॥७०॥
इस विचार से भी पधारना आपका ।
तपस्विनी - आश्रम का उपकारक हुआ ।।
निज प्रभाव का वर - आलोक प्रदान कर।
कितने मानस - तम का संहारक हुआ ॥७१॥
है समाप्त हो गया यहाँ का अध्ययन ।
अव अगस्त - आश्रम में मैं हूँ जा रही॥
विदा ग्रहण के लिये उपस्थित हुई हूँ।
यद्यपि मुझे पृथकता है कलपा रही ॥७२।।
है कामना अलौकिक दोनों लाडिले।
पुण्य - पुंज के पूत - प्रतीक प्रतीत हों।
तज अवैध - गति विधि - विधान - सर्वस्व वन ।
आपके विरह - वासर शीघ्र व्यतीत हों।७३।।
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