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वैदेही-वनवास

जनक - नन्दिनी ने अन्याश्रम - गमन सुन।
कहा आप जायें मंगल हो आपका ॥
अहह कहाँ पाऊँगी विदुषी आप सी।
आपका वचन पय था मम - संताप का ॥७४॥

अनुसूया देवी सी वर - विद्यावती।
सदाचारिणी सर्व - शास्त्र - पारंगता ॥
यदि मैंने देखी तो देखी आपको।
वैसी ही हैं आप सुधी पर - हित - रता ॥७५॥

जो उपदेश उन्होंने मुझको दिये हैं।
वे मेरे जीवन के प्रिय - अवलम्ब हैं।
उपवन रूपी मेरे मानस के लिये।
सुरभित करनेवाले कुसुम - कदम्ब हैं ॥७६॥

कहूँ आपसे क्या सब कुछ हैं जानती।
पति - वियोग - दुख सा जग में है कौन दुख ॥
तुच्छ सामने उसके भव - सम्पत्ति है।
पति - सुख पत्नी के निमित्त है स्वर्ग - सुख ॥७७॥

अन्तर का परदा रह जाता ही नही ।
एक रंग ही में रॅग जाते हैं उभय ।।
जीवन का सुख तब हो जाता है द्विगुण ।
बन जाते हैं एक जब मिले दो हृदय ॥७८।।