पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१२
वैदेही-वनवास

रविकुल - रवि का आनन अवलोके विना।
सरस शरद - सरसीरुह से वे क्यों खिले ॥
क्यों न ललकते आकुल हो तारे रहें।
क्यों न छलकते आँखों में आँसू मिले ।।८४।।

कलपेगा आकुल होता ही रहेगा।
व्यथित बनेगा करेगा न मति की कही। .
निज - वल्लभ को भूल न पायेगा कभी।
हृदय हृदय है सदा रहेगा हृदय ही ॥८५।।

भूल सकेंगे कभी नहीं वे दिव्य - दिन ।।
भव्य - भावनायें जब दम भरती रही ।।
कान रहे जब सुनते परम रुचिर - वचन ।
ऑखें जब छबि - सुधा - पान करती रही ॥८६)

कभी समीर नहीं होगा गति से रहित ।
होगा सलिल तरंगहीन न किसी समय ॥
कभी अभाव न होगा भाव - विभाव का।
कभी भावना - हीन नहीं होगा हृदय ।।८७॥

यह स्वाभाविकता है इससे बच सका -
कौन, सभी इस मोह - जाल में हैं फंसे ॥
सारे अन्तस्तल में इसकी व्याप्ति है।
मन - प्रसून हैं वास से इसी के वसे ॥८८।।