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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२५२

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त्रयोदश सर्ग

रहे इसी पथ के मम जीवन - धन पथिक ।
यही ध्येय मेरा भी आजीवन रहा ।
किन्तु करे संयोग के लिये यत्न क्या।
आकस्मिक - घटना दुख देती है महा ॥७९।।

कार्य - सिद्धि के सारे-साधन मिल गये।
कृत्यों मे त्रुटि - लेश भी न होते कही।
आये विन्न अचिन्तनीय यदि सामने।
तो नितान्त - चिन्तित चित क्यों होगा नही ।।८०।।

जब उसका दर्शन भी दुर्लभ हो गया।
जो जीवन का सम्वल अवलम्बन रहा।
तो आवेग बनाये क्यों आकुल नही।
कैसे तो उद्वेग वेग जाये सहा ।।८१।।

भूल न पाई वे बाते ममतामयी।
प्रीति - सुधा से सिक्त सर्वदा जो रही।
स्मृति यदि है मेरे जीवन की सहचरी ।
अहह आत्म - विस्मृति तो क्यों होगी नही ।।८२॥

बिना वारि के मीन वने वे आज हैं।
रहे जो नयन सदा स्नेह - रस में सने ।।
भला न कैसे हो मेरी मति वावली।
क्यों प्रमत्त उन्मत्त नहीं ममता बने ॥८३॥