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चतुर्दश सर्ग

मलयानिल की मंथर - गति पर मुग्ध हो।
करती रहती थीं बनठन अठखेलियाँ।
फूल व्याज से बार बार उत्फुल्ल हो।
विलस विलस कर बहु - अलवेली - वेलियाँ।।१९।।

हरे - दलों से हिल मिल खिलती थी बहुत ।
कभी थिरकती लहराती बनती कलित ॥
कभी कान्त - कुसुमावलि के गहने पहन ।
लतिकाये करती थी लीलायें ललित ॥२०॥

कभी मधु - मधुरिमा से बनती छविमयी।
कभी निछावर करती थी मुक्तावली ।।
सजी - साटिका पहनाती थी अवनि को।
विविध-कुसुम-कुल- कलिता हरित-तृणावली ॥२१॥

दिये हरित - दल उन्हें लाल जोड़े मिले।
या अनुरक्ति- अरुणिमा ऊपर आ गई।
लाल - लाल - फूलों से विपुल - पलाश के।
कानन मे थी ललित - लालिमा छा गई ।।२२।।

उन्हें बड़े - सुन्दर - लिबास थे मिल गये।
छटा छिटिक थी रही वॉस - खूटियों पर ।
आज वेल - बूटों से वे थी विलसती ।
टूटी पड़ती थी विभूति बूटियो पर ।। २३ ।।