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वैदेही-वनवास

सब दिन जिस पलने पर प्यारा - तन पला।
देती थी उसकी महती - कृति का पता ॥
दिखा दिखा कर हरीतिमा की मधुर - छवि ।
नव - दूर्वा दे महि को मोहक - श्यामता ॥२४॥

कोकिल की काकली तितिलियों का नटन।
खग - कुल - कूजन रंग - बिरंगी वन - लता ।।
अजव - समा थो बाँध रही छवि पुंजता।
गुंजन - सहित मिलिन्द - वृन्द की मत्तता ॥२५॥

वर-वासर बरवस था मन को मोहता।
मलयानिल बहु- मुग्ध बना था परसता ॥
थी चौगुनी चमकती निशि में चॉदनी।
सरसतम - सुधा रहा सुधाकर बरसता ॥ २६॥

मधु - विकास में मूर्तिमान - सौंदर्य था।
वांछित - छवि से बनी छबीली थी मही ॥
· पत्ते पत्ते में प्रफुल्लता थी भरी।
वन में नर्तन विमुग्धता थी कर रही ॥२७॥

समय सुनाता वह उन्मादक - राग था।
जिसमें अभिमंत्रित - रसमय - स्वर थे भरे ॥
भव - हृत्तंत्री के छिड़ते वे तार थे।
जिनकी ध्वनि सुन होते सूखे - तरु हरे ॥२८॥