पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२६२

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चतुर्दश सर्ग

सौरभ में थी ऐसी व्यापक-भूरिता।
तन वाले निज तन-सुधि जोते-भूल थे।
मोहकता - डाली हरियाली थी लिये।
फूले नहीं समाते फूले फूल थे॥२९॥

शान्ति - निकेतन के सुन्दर - उद्यान में।
जनक - नन्दिनी सुतों - सहित थी घूमती॥
उन्हे दिखाती थीं कुसुमावलि की छटा।
बार वार उनके मुख को थी चूमती॥३०॥

था प्रभात का समय दिवस-मणि-दिव्यता।
अवनीतल को ज्योतिर्मय थी कर रही।
आलिगन कर विटप, लता, तृण, आदि का।
कान्तिमय - किरण कानन में थी भर रही॥३१॥

युगल - सुअन थे पांच साल के हो चले।
उन्हें बनाती थी प्रफुल्ल कुसुमावली॥
कभी तितिलियों के पीछे वे दौड़ते।
कभी किलकते सुन कोकिल की काकली॥३२॥

ठुमुक ठुमुक चल किसी फूल के पास जा।
विहॅस विहॅस थे तुतली - वाणी बोलते॥
टूटी फूटी निज पदावली मे उमग।
वार बार थे सरस - सुधारस घोलते॥३३॥