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वैदेही-वनवास

देवि! आत्म - सुख ही प्रधान है विश्व में ।
किसे आत्म - गौरव अतिशय प्यारा नही ।
स्वार्थ सर्व - जन - जीवन का सर्वस्व है।
है हित - ज्योति - रहित अन्तर तारा नही ॥४४॥

भिन्न - प्रकृति से कभी प्रकृति मिलती नहीं।
अहंभाव है परिपूरित संसार में ।
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, स्वर है भरा।
प्राणि मात्र के हृत्तंत्री के तार में ॥४५॥

है विवाह - बंधन ऐसा बंधन नही ।
स्वाभाविकता जिसे तोड़ पाती 'नहीं।
विविध - परिस्थितियाँ हैं ऐसी बलवती।
जिससे मुंह चितवृत्ति मोड़ पाती नही ॥४६॥

कृत्रिमता है उस कुज्झटिका - सदृश जो।
नहीं ठहर पाती विभेद - रविकर परस ॥
उससे कलुषित होती रहती है सुरुचि ।
असरस बनता रहता है मानस - सरस ॥४७॥

है सच्चा - व्यवहार शुचि - हृदय का विभव ।
प्रीति - प्रतीति - निकेत परस्परता - अयन ॥
उर की ग्रंथि विमोचन में समधिक - निपुण ।
परम - भव्य - मानस - सद्भावों का भवन ॥४८॥