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चतुर्दश सर्ग
कृत्रिमता है कपट कुटिलता सहचरी।
मंजुल - मानसता की है अवमानना ।।
सहज - सदाशयता पद - पूजन त्यागकर ।
यह है करती प्रवंचना की अर्चना ॥४९॥
किन्तु देखती हूँ मैं यह बहु - घरों मे।
सदाचरण से अन्यथाचरण है अधिक ।।
कभी कभी सुख - लिप्सादिक से बलित चित ।
सत्प्रवृत्ति - हरिणी का बनता है बधिक ॥५०॥
भव - मंगल - कामना तथा स्थिति - हेतु से।
नर नारी का नियति ने किया है सृजन ।।
हैं अपूर्ण दोनों पर उनको पूर्णता ।
है प्रदान करता दोनों का सम्मिलन ॥५१॥
प्राणी में ही नही, तृणों तक में यही ।
अटल व्यवस्था दिखलाती है स्थापिता ।।
जो वतलाती है विधि - नियम - अवाधता ।
अनुल्लंघनीयता तथा कृतकार्यता ॥५२॥
यदि यथेच्छ आहार - विहार - उपेत हो।
नर नारी जीवन, तो होगी अधिकता -
पशु - प्रवृत्ति की, औ उच्छृखलता बढ़े।
होवेगी दुर्दशा - मर्दिता - मनुजता ॥५३॥
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