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चतुर्दश सर्ग

प्रकृति - भिन्नता करती है प्रतिकूलता।
भ्रम, प्रमादि आदिक विहीन मन है नही ।।
कही अज्ञता वहॅक बनाती है बिबश ।
मति - मलीनता है विपत्ति ढाती कही ॥७९॥

है प्रवृत्ति नर नारी की त्रिगुणात्मिका।
सब मे सत, रज, तम, सत्ता है सम नही ।।
उनकी मात्रा में होती है भिन्नता ।
देश काल औ पात्र - भेद है कम नही ।। ८०॥

अन्तराय ए साधन है ऐसे सवल ।
जो प्राणी को हैं पचड़ों में डालते ॥
पंच - भूत भी अल्प प्रपंची है नहीं।
वे भी कब हैं तम मे दीपक बालते ।। ८१॥

ऐसे अवसर पर प्राणी को वन प्रबल ।
आत्म - शक्ति की शक्ति दिखाना चाहिये ।।
सत्प्रवृत्ति से दुष्प्रवृत्तियों को दवा ।
तम मे अन्तर्योति - जगाना चाहिये ।। ८२।।

सत्य है, प्रकृति होती है अति - बलवती।
किन्तु आत्मिक - सत्ता है उससे सवल ।।
भौतिकता यदि करे भूतपन भूत बन ।
क्यों न उसे आध्यात्मिकता तो दे मसल ।। ८३॥