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वैदेही-वनवास

जिसमें सारी - सुख - लिप्सायें हों भरी।
जो परमित होवे आहार - विहार तक ।
उस प्रसून के ऐसा है तो प्रेम वह ।
जिसमें मिले न रूप न रंग न तो महक ॥ ८४॥

जिसमें लाग नहीं लगती है लगन की।
जिसमें डटकर प्रेम ने न ऑचें सहीं॥
जिसमें सह सह सॉसते न स्थिरता रही।
कहते हैं दाम्पत्य - धर्म उसको नहीं ॥ ८५॥

जहाँ प्रेम सा दिव्य - दिवाकर है उदित ।
कैसे दिखलायेगा तामस - तम वही ।।
दम्पति को तो दम्पति कोई क्यों कहे ।
जिसमें है दाम्पत्य - दिव्यता ही नही ।। ८६ ।।

निज - प्रवाह में बहा अपावन - वृत्तियाँ।
जो न प्रेम धाराये उर में हों वही ।।
तो दम्पति की हित - विधायिनी वासना।
पायेगी सुर - सरिता - पावनता नही ।। ८७॥

जिसे तरंगित करता रहता है सदा।
मंजु सम्मिलन - शीतल - मृद्गामी अनिल ।।
खिले मिले जिसमें सद्भावों के कमल ।
है दम्पति का प्रेम वह सरोवर - सलिल ।। ८८॥