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वैदेही-वनवास
उसका अधिकारी है सबसे अधिक पति ।
सोच यह स्वकृति की करती जो पूर्ति हो।
पतिव्रता का पद पा सकती है वही।
जीवितेश हित की जो जीवित मूर्ति हो ॥११४॥
सहज - सरलता, शुचिता, मृदुता सदयता -
आदि दिव्य गुण द्वारा जो हो ऊर्जिता ॥
प्रीति सहित जो पति - पद को है पूजती ।
भव में होती है वह पत्नी पूजिता ॥११५।।
लंका में मेरा जिन दिनों निवास था।
हाँ विलोकी जो दाम्पत्य - विडम्बना ।
उसका ही परिणाम राज्य - विध्वंस था।
भयंकरी है संयम की अवमानना ॥११६॥
होता है यह उचित कि जव दम्पति खिजें।
सूत्रपात जब अनबन का होने लग ॥
उसी समय हो सावधान संयत वनें।
कलह - वीज जब बिगड़ा मन वोने लगे ॥११७॥
यदि चंचलता पत्नी दिखलाये अधिक ।
पति तो कभी नही त्यागे गंभीरता ॥
उग्र हुए पति के पत्नी कोमल बने ।
हो अधीर कोई भी तजे न धीरता ॥११८॥