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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२७८

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चतुर्दश सर्ग

चूक उसीकी है जो वल्लभता दिखा।
हृदय - वल्लभा का पद पा जाती नहीं।
प्राणनाथ तो प्राणनाथ कैसे बने।
पति प्राणा यदि पत्नी बन पाती नही ॥१०९।।

पढ़ तदीयता - पाठ भेद को भूल कर ।
सत्य - भाव से पूत - प्रेम - प्याला पिये।
बन जाती हैं जीवितेश्वरी पत्नियाँ।
जीवनधन को जीवनधन अर्पित किये ॥११०॥

भाग्यवती वह है भर सात्विक - भूति से।
भक्ति - बीज जो प्रीति - भूमि मे बो सकी।
वह सहृदयता है सहृदयता ही नही ।
जो न समर्पित हृदयेश्वर को हो सकी ॥१११।।

पूजन कर सद्भाव - समूह - प्रसून से।
जगा आरती सत्कृति की बन सद्वता ॥
दिव्य भावना बल से पाकर दिव्यता।
देवी का पद पाती है पति - देवता ॥११२॥

वहन कर सरस - सौरभ संयत - भाव का।
जो सरोजिनी सी हो भव - सर में खिली ॥
वही सती है शुचि - प्रतीति से पूरिता ।
जिसे पति - परायणता पूरी हो मिली ॥११३॥