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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२८४

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चतुर्दश सर्ग

नही पाशविकता का ही आधिक्य था।
हिसा, प्रति - हिसा भी थी प्रबला बनी ।।
प्रायः पापाचार - बाधकों के लिये ।
पापाचारी की उठती थी तर्जनी ॥१३९॥

बने कलंकी कुल तो उनकी बला से।
लोक • लाज की परवा भी उनको न थी।
जैसा राजा था वैसी ही प्रजा थी।
ईश्वर की भी भीति कभी उनको न थी॥१४०॥

इन्ही पापमय कर्मों के अतिरेक से।
ध्वंस हुई कञ्चन - विरचित - लंकापुरी ॥
जिससे कम्पित होते सदा सुरेश थे।
धूल मे मिली प्रबल - शक्ति वह आसुरी ॥१४१॥

प्राणी के अयथा - आहार - विहार से।
उसकी प्रकृति कुपित होकर जैसे उसे -
देती है बहु - दण्ड रुजादिक - रूप में।
बैसे हो सब कहते हैं जनपद जिसे ॥१४२॥

वह चलकर प्रतिकूल नियति के नियम के।
भव - व्यापिनी प्रकृति के प्रवल - प्रकोप से ॥
कभी नही बचता होता विध्वंस है।
वैसे ही जैसे तम दिनकर ओप से ॥१४३॥