सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४२
वैदेही-वनवास

इष्ट - प्राप्ति थी स्वार्थ - सिद्धि उनके लिये ।
थी कदर्थना से पूरिता - परार्थता ॥
पुण्य - कार्यों में थी बड़ी - विडम्बना ।
पाप - कमाना थी जीवन - चरितार्थता ॥१३४॥

बहु - वेशों में परिणत करती थी उन्हें ।
पुरुषों को वश में करने की कामना ।
पापीयसी - प्रवृत्ति - पूर्ति के लिये वे ।
करती थी विकराल - काल का सामना ।।१३५॥

थोड़ी भी परवाह कलंकों की न कर।
लगा कालिमा के मुंह में भी कालिमा।
लालन कर लालसामयी - कुप्रवृत्ति का ।
वे रखती थी अपने मुख की लालिमा ॥१३६॥

इन्द्रिय - लोलुपता थी रग रग में भरी ।
था विलास का भाव हृदय - तल में जमा ।
रोमांचितकर उनकी पाप - प्रवृत्ति थी।
मनमानापन रोम रोम में था रमा ॥१३७॥

पुरुष भी इन्हीं रंगों में ही थे रेंगे।
पर कठोरता की थी उनमें अधिकता ॥
जो प्रवंचना में प्रवीण थी रमणियाँ।
तो उनकी विधि - हीन - नीति थी बधिकता ॥१३८॥