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वैदेही-वनवास

यदि भौतिकता दानवीय - संपत्ति है।
तो आध्यात्मिकता दैविक - सुविभूति है ॥
यदि उसमें है नारकीय - कटु - कल्पना ।
तो इसमें स्वर्गीय - सरस - अनुभूति है ॥१५४॥

यदि उसमें है लेश भी नहीं शील का।
तो इसका जन - सहानुभूति निजस्व है।
यदि उसमें है भरी हुई उइंडता ।
सहनशीलता । तो इसका सर्वस्व है॥१५५॥

यदि वह है कृत्रिमता कल छल से भरी।
तो यह है सात्विकता - शुचिता - पूरिता ॥
यदी उसमें दुर्गुण का ही अतिरेक है।
तो इसमें है दिव्य - गुणों की भूरिता ॥१५६॥

यदि उसमें पशुता की प्रबल - प्रवृत्ति है।
तो इसमें मानवता की अभिव्यक्ति है।
भौतिकता में यदि है जड़तावादिता।
आध्यात्मिकता मध्य चिन्मयी - शक्ति है ॥१५७।।

भौतिकता है भव के भावों में भरी।
और प्रपंची पंचभूत भी हैं न कम ॥
कहाँ किसी का कब छूटा इनसे गला ।
किन्तु श्रेय - पथ अवलम्बन है श्रेष्ठतम ॥१५८।।