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वैदेही-वनवासष

जब वे होते तप्त बनाता तर उन्हें ।
जब होते निर्बल तब कर देता सबल ॥
उसी की सरसता का अवलम्बन मिले।
अनुपम - रस पाते थे उनके सकल - फल ॥२९॥

वह जल देता क्यों उस नौका को डुबा ।
जो तरु के तन द्वारा है निर्मित हुई।
सदा एक रस रहती है उत्तम - प्रकृति ।
तन - हित करती है तनबिन कर भी रुई ॥३०॥

है मुँह देखी प्रीति, प्रीति सच्ची नही ।
वह होती है असम, स्वार्थ - साधन - रता ॥
जीते जगती रह, है मरे न भूलती।
पूत सलिल सी पूत - चित्त की पूतता ॥३१॥

जितने तरु प्रतिविम्वित थे सरि - सलिल में।
उन्हें कुछ समय तक लव रहे विलोकते ॥
फिर माता से पूछा क्या ए कूल द्रुम ।
जल में अपना आनन हैं अवलोकते ॥३२॥

मा बोली वे क्यों जल में मुंह देखते ।।
जो हैं ज्ञान - रहित जो जड़ता - धाम हैं॥
है छाया ग्राहिणी - शक्ति विमलाम्बु मे।
तरु प्रतिविम्बितकरण उसी का काम है ॥३३॥