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पंचदश सर्ग

सत्य वात सुत ! मैंने बतला दी तुम्हें ।
किन्तु क्रियाये तरु की हैं शिक्षा भरी ।।
तुम लोगों को यही चाहिये सीख लो।
मिले जहाँ पर कोई शिक्षा हितकरी ॥३४॥

सरिता सेचन कर तरुओं को सलिल से।
हरा - भरा रखकर उनको है पालती ॥
अवसर पर तर रख, कर शीतल तपन में।
जीवन से उनमें है जीवन डालती ॥३५॥

यथासमय तो उसको छाया - दान कर।
तरुवर भी उस पर बरसाते फूल हैं ।।
उसके सुअनों को देते हैं सरस - फल ।
सज्जित उनसे रहते उसके कूल है ॥३६।।

उपकारक के उपकारों को याद रख ।
करते रहना अवसर पर प्रतिकार भी॥
है अति - उत्तम - कर्म, धर्म है लोक का।
हो कृतज्ञ, न वने अकृतज्ञ मनुज कभी ॥३७॥

या भी तरु हैं लोक - हित निरत दीखते ।
आतप मे रह करते छाया - दान है।
उनके जैसा फलद दूसरा कौन है।
सुर - शिर पर किनके फूलों का स्थान है ॥३८॥