पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३०५

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षोड़श सर्ग
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शुभ सम्वाद
तिलोकी.

दिनकर किरणे अब न आग थीं बरसती ।
अब न तप्त - तावा थी बनी वसुन्धरा ।।
धूप जलाती थी न ज्वाल - माला - सदृश ।
वातावरण न था लू - लपटों से भरा ॥१॥

प्रखर - कर - निकर को समेट कर शान्त बन ।
दग्ध - दिशाओं के दुख को था हर रहा ।
धीरे - धीरे अस्ताचल पर पहुंच रवि ।
था वसुधा - अनुराग - राग से भर रहा ॥२॥

वह छाया जो विटपावलि में थी छिपी।
बाहर आकर बहु - व्यापक थी बन रही।
उसको सब थे तन - बिन जाते देखते।
तपन तपिश जिस ताना को थी तन रही ॥३॥