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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३११

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वैदेही-वनवास

अहितू को भी दूत भेज हित - नीति गई समझाई।
होते क्षमता, क्षमा - शीलता किसने इतनी पाई ॥१२॥
किसने रंक - विभीषण को दिखला शुचि - नीति प्रणाली ।
राज्य - सहित सुर- पुर - विभूति - भूषित - लंका दे डाली ।।१३॥
किसने उसे बिठा पावक में जो थी शुचिता ढाली ।
तत्कालिक पावन - प्रतीति की मर्यादा प्रतिपाली ॥१४॥
अवध पहुँच पहले जा कैकेयी को शीश नवाया।
ऐसा उज्वल कलुष - रहित - उर किसका कहाँ दिखाया ॥१५॥
मिले राज जो प्रजारंजिनी - नीति नव - लता, फूली ।
उस पर प्रजा - प्रतीति - प्रीति प्रिय -रुचि - भ्रमरी है भूली ।।१६।।
घर घर कामधेनु है सब पर सुर - तरु की है छाया।
सरस्वती वरदा है, किस पर है न रमा की माया ॥१७॥
सकल - जनपदों में जन पद है निज पद का अधिकारी।
विलसित है संयम सुमनों से स्वतंत्रता - फुलवारी ॥१८॥
हुए सत्य-व्यवहार - रुचिरतर - तरुवर - चय के सफलित ।
नगर नगर नागरिक - स्वत्व पाकर है परम प्रफुल्लित ॥१९||
ग्राम ग्राम ने सीख लिया है उन बीजों का बोना।
जिससे महि बन शस्य - श्यामला उगल रही है सोना ॥२०॥
चाहे पुरवासी होवे या होवे ग्राम - निवासी।
सबकी रुचि - चातकी है सुकृति - स्वाति - बूंद की प्यासी ।।२१।।
जिससे भू थी कम्पित रहती दिग्गज थे थर्राते ।
सकल - लोक का जो कंटक था जिससे यम घबराते ॥२२॥