पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३१२

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षोडश सर्ग

उसकी कुत्सितु - नीति कालिमामयी - यामिनी बीते ।
लोक - चकोर सुनीति - रजनि पा शान्ति - सुधा हैं पीते ।।२३।।
है सुर - वृन्द सुखित मुनिजन हैं मुदित मिटे दानवता।
प्रजा - पुंज है पुलकित देखे मानवेन्द्र - मानवता ॥२४॥
होती है न अकाल - मृत्यु अनुकूल - काल है रहता।
सकल - सुखों का स्रोत सर्वदा है घर घर मे बहता ॥२५॥
किसने जन जन के उर-भू मे कीर्ति बेलि, यों, बोई ।
सकल - लोक - अभिराम राम है है न राम सा कोई ॥२६॥५८।।

तिलोकी


लव जब अपने अनुपम - पद को गा चुके ।
उसी समय मुकुटालंकृत कमनीय तन ।।
एक पुरुष ने मन्दिर में आ प्रेम से ।
किया जनकजा के पावन - पद का यजन ॥५९॥

उनका अभिनन्दन कर परमादर सहित ।
जनक - नन्दिनी ने यह पुत्रों से कहा।
करो वन्दना इनकी ये पितृव्य हैं।
यह सुन लव - कुश दोनो सुखित हुए महा ॥६०॥

उद दोनों ने की उनकी पद - वन्दना।
यथास्थान • फिर जा बैठे दोनों सुअन ॥
उनकी आकृति, प्रकृति, कान्ति, कमनीयता।
अवलोकन कर हुए बहु - मुदित रिपु - दमन ।।६१।।