सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७४
वैदेही-वनवास

वर - विद्याये पढ़ कुछ वर्ष व्यतीत कर।
जव वे सब विदुपी बन आई मधुपुरी।।
सत्कुल की कन्याओं की तो बात क्या ।
दनुज - सुतायें भी थी सद्भावों भरी ॥७२॥

आपकी सदाशयता की बाते कहे।
किसी काल में तृप्ति उन्हें होती न थी॥
विरह - व्यथा की कथा करुण - स्वर से सुना।
लवणासुर की कन्या कब रोती न थी॥७३॥

सच यह है इस समय की चरम - शान्ति का।
श्रेय इस पुनीताश्रम को है कम नहीं।
ज्योति यहाँ जो विदुपी - विदुषों को मिली।
तम उसके सम्मुख सकता था थम नही ।।७४।।

सत्कुल । के छात्रों अथवा छात्रियों ने।
जैसे गौरव - गरिमा गाई आपकी ॥
वैसा ही स्वर दनुज - छात्रियों का रहा।
कैसे इति होती न अखिल - परिताप की १७५॥

देवि ! आपका त्याग, तपोबल, आत्मबल, ।
पातिव्रत का परिपालन, संयम, नियम ॥
सहज - सरलता, दयालुता, हितकारिता ।
लोक - रंजिनी नीति - प्रीति है दिव्यतम ॥७६॥