पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३१८

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सप्तदश सर्ग
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जन-स्थान
तिलोकी

पहन हरित - परिधान प्रभूत - प्रफुल्ल हो।
ऊँचे उठ जो रहे व्योम को चूमते ।
ऐसे बहुश. - विटप - वृन्द अवलोकते।
जन - स्थान मे रघुकुल - रवि थे घूमते ॥१॥

थी सम्मुख कोसों तक फैली छबिमयी।
विविध -तृणावलि - कुसुमावलि - लसिता - धरा ॥
रंग - विरंगी - ललिता - लतिकाये तथा।
जड़ी - बूटियों से था सारा - वन भरा ॥२॥

दूर क्षितिज के निकट असित - घन - खंड से ।
विन्ध्याचल के विविध - शिखर थे दीखते ।।
बैठ भुवन - व्यापिनी - दिग्वधू - गोद मे।
प्रकृति - छटा अंकित करना थे सीखते ॥ ३॥