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वैदेही-वनवास

हो सकता है पत्थर का उर भी द्रवित ।
पर्वत का तन भी पानी बन है बहा ।।
मेरु - प्रस्रवण मूर्तिमन्त - प्रस्रवण बन ।
यह कौतुक था वसुधा को दिखला रहा ॥४॥

खेल रही थी रवि - किरणावलि को लिये।
विपुल - विटप - छाया से वनी हरी - भरी।।
थी उत्ताल - तरंगावलि से उमगती।
प्रवाहिता हो गद्गद बन गोदावरी ॥५॥

कभी केलि करते उड़ते फिरते कभी।
तरु पर बैठे विहग - वृन्द थे बोलते ॥
कभी फुदकते कभी कुतरते फल रहे।
कभी मंदगति से भू पर थे डोलते ॥६॥

कहीं सिहिनी सहित सिह था घूमता ।
गरजे वन में जाता था भर भूरि - भय ।
दिखलाते थे कोमल - तृण चरते कहीं।
कहीं छलॉगे भरते मिलते मृग - निचय ॥७॥

द्रम - शाखा तोड़ते मसलते तृणों को ।
लिये हस्तिनी का समूह थे घूमते ॥
मस्तक - मद से आमोदित कर ओक को।
कही मत्त - गज बन प्रमत्त थे झूमते ॥८॥