पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३२८

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सप्तदश सर्ग,

अन्य के लिये आत्म - सुखों का त्यागना ।
निज हित की पर - हित निमित्त अवहेलना ।।
देश, जाति या लोक - भलाई के लिये।
लगा लगा कर दॉव जान पर खेलना ॥४९॥

अति - दुस्तर है, है बहु - संकट • आकलित ।
पर सत्पथ में उनका करना सामना ।
और आत्मवल से उनपर पाना विजय ।
है मानवता की कमनीया - कामना ॥५०॥

जिसका पथ - कण्टक संकट बनता नहीं।
भवहित - रत हो जो न आपदा से डरा ॥
सत्पथ में जो पवि को गिनता है कुसुम ।
उसे लाभ कर धन्या वनती है धरा ॥५१।।

प्रिया - रहित हो अल्प व्यथित मैं नहीं हूँ।
पर कर्तव्यों से च्युत हो पाया नही ।
इसी तरह हैं कृत्यरता जनकांगजा।
काया जैसी क्यों होगी छाया नहीं ॥५२॥

हाँ इसका है खेद परिस्थिति क्यों बनी -
ऐसी जो सामने आपदा आगई ।
यह विधान विधि का है नियति - रहस्य है।
कव न विवशता मनु - सुत को इससे हुई ॥५३।।