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वैदेही-वनवास

यह होता मानवता से मुंह मोड़ना।
यह होती पशुता जो है अति - निन्दिता ॥
ऐसा कर वे च्युत हो जाती स्वपद से।
कभी नहीं होती इतनी अभिनन्दिता ॥४४॥

है प्रधानता आत्मसुखों की विश्व में।
किन्तु महत्ता आत्म त्याग की है अधिक ॥
जगती में है किसे स्वार्थ प्यारा नहीं।
वर नर हैं परमार्थ - पंथ के ही पथिक ॥४५॥

स्वार्थ - सिद्धि या आत्म - सुखों की कामना ।
प्रकृति - सिद्ध है स्वाभाविक है सर्वथा ॥
किन्तु लोकहित, भवहित के अविरोध से ।
अकर्त्तव्य बन जायेगी वह अन्यथा ॥४६॥

इन बातों को सोच जनक - नन्दिनी की।
तपोभूमि की त्यागमयी शुचि - साधना-।।
लोकोत्तर है वह सफला भी हुई है। .
वह परार्थ की है अनुपम - आराधना ॥४७॥

रही बात उस द्विदश - वात्सरिक विरह की ।
जिसे उन्होंने है संयत - चित से सहा॥
उसकी अतिशय - पीड़ा है, पर कव नहीं ।
बहु - संकट - संकुल परार्थ का पथ रहा ।।४८।।