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सप्तदश सर्ग

कुलपति - आश्रम - वास जनक - नन्दिनी का।
हम दोनों के सद्विचार का मर्म है।
वेद - विहित बुध - वृन्द - समर्थित पूत - तम ।
भवहित - मंगल - मूलक वांछित - कर्म है ॥७९॥

कुछ लोगों का यह विचार है आत्म - सुख ।
है प्रधान है वसुधा में वांछित वही॥
तजे विफलता - पथ वाधाओं से बचे।
मनुज को सफलता दे देती है मही॥८०॥

वे कहते हैं नरक, स्वर्ग, अपवर्ग की।
जन्मान्तर या लोकान्तर की कल्पना ॥
है परोक्ष की वात हुई प्रत्यक्ष कब ।
है परार्थ भी अतः व्यर्थ की जल्पना ||८१।।

यह विचार है स्वार्थ - भरित भ्रम - आकलित ।
कर इसका अनुसरण ध्वंस होती धरा॥
है परार्थ, परमार्थ, वाद ही पुण्यतम ।
वह है भवहित के सद्भावों से भरा ॥८२।।

स्वार्थ वह तिमिर है जिसमें रहकर मनुज ।
है टटोलता रहता अपनी भूति को॥
है परार्थ परमार्थ दिव्य वह ओप जो।
उद्भासित करता है विश्व - विभूति को ॥८३॥