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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३३५

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वैदेही-वनवास

आत्म - सुख - निरत आत्म - सुखों मे मग्न हो।
अवलोकन करता रहता निज - ओक है।
कहलाकर कुल का, स्वजाति का, देश का।
लोक - सुख - निरत बनता भव आलोक है ।।८४||

इसी पंथ की पथिका हैं जनकांगजा।
उनका आश्रम का निवास सफलित हुआ।
मिले अलौकिक - लाल हो गया लोक - हित ।
कलुषित - जन - अपवाद काल - कवलित हुआ ॥८५॥

अश्वमेध का अनुष्ठान हो चुका है।
नीति की कलिततम कलिकाये खिलेगी।
कृपा दिखा उत्सव में आयें आप भी।
वहाँ जनक - नन्दिनी आपको मिलेगी ।८६।।

दोहा


चले गये रघुकुल तिलक कह पुलकित - कर वात ।
वनदेवी अविकच - वदन वना विकच - जलजात ॥८७।।