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शीत - काल था वाष्पमय बना व्योम था।
अवनी - तल में था प्रभूत - कुहरा भरा।
प्रकृति - वधूटी रही मलिन - वसना बनी।
प्राची सकती थी न खोल मुंह मुसुकुरा ॥१॥
ऊपा आई किन्तु विहॅस पाई 'नहीं।
राग - मयी हो वनी विरागमयी रही।
विकस न पाया दिगंगना - वर - बदन भी।
वात न जाने कौन गई उससे कही ॥२॥
ठंढी - सॉस समीरण भी था भर रहा। ।
था प्रभात के वैभव पर पाला पड़ा।
दिन - नायक भी था न निकलना चाहता।
उन पर भी था कु - समय का पहरा कड़ा ॥३॥