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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३४०

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२९९प
अष्टादश सर्ग

स्थान बने थे भिन्न भिन्न सबके लिये।
ऋपि, महर्षि, नृप - वृन्द, विबुध - गण-मण्डली ।।
यथास्थान थी बैठी अन्य - जनों सहित ।
चित्त - वृत्ति थी बनी विकच - कुसुमावली ॥१९॥

एक भाग था वड़ा - भव्य मञ्जुल - महा।
उसमे राजभवन की सारी - देवियाँ
थीं विराजती कुल - वालाओं के सहित ।
वे थीं वसुधातल की दिव्य - विभूतियाँ ॥२०॥

जितने आयोजन थे सज्जित - करण के।
नगर में हुए जो मंगल - सामान थे।
विधि - विडम्बना - विवश तुषार - प्रपात से।
सभी कुछ न कुछ अहह हो गये म्लान थे ॥२१॥

गगन - विभेदी जयजयकारों के जनक ।
विपुल - उल्लसित जनता के आह्लाद ने ॥
जनक - नन्दिनी पुर - प्रवेश की सूचना ।
दी अगणित - वाद्यों के तुमुल - निनाद ने ॥२२॥

सबसे आगे वे सैकड़ों सवार थे।
जो हाथों में दिव्य - ध्वजायें थे लिये ॥
जो उड़ उड़ कर यह सूचित कर रही थी।
कीर्ति - धरा मे होती है सत्कृति किये ॥२३॥
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