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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३४१

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वैदेही-वनवास

इनके पीछे एक दिव्यतम - यान था।
जिसपर बैठे हुए थे भरत रिपुदमन ।।
देख आज का स्वागत महि - नन्दिनी का ।
था प्रफुल्ल शतदल जैसा उनका बदन ॥२४॥

इसके पीछे कुलपति का था रुचिर - रथ ।
जिसपर वे हो समुत्फुल्ल आसीन थे।
बन विमुग्ध थे 'अवध - छटा अवलोकते ।
राम - चरित की ललामता में लीन थे ॥२५।।

जनक - सुता - स्यंदन इसके उपरान्त था।
जिसपर थी कुसुमों की वर्षा हो रही ।।
वे थीं उसपर पुत्रों - सहित विराजती।
दिव्य - ज्योति मुख की थी भव - तम खो रही ॥२६॥

कुश मणि - मण्डित - छत्र हाथ में थे लिये ।
चामीकर का चमर लिये लव थे खड़े ।।
एक ओर सादर बैठे सौमित्र थे।
देखे जनता - भक्ति थे प्रफुल्लित - बड़े ॥२७॥

सबके पीछे बहुशः - विशद - विमान थे।
जिनपर थी आश्रम - छात्रों की मण्डली ॥
छात्राओं की संख्या भी थोड़ी न थी।
बनी हुई थी जो वसंत - विटपावली ॥२८॥