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अष्टादश सर्ग

साधिकार - पुरुपों साधारण - जनों के।
उरों में रमी दिव्य - ज्योति की रम्यता ॥
शान्तिदायिनी बन थी भूति - विधायिनी ।
कहलाकर कमनीय - कल्पतरु की लता ॥४९॥

यथाकाल यह दिव्य - ज्योति भव - हित - रता।
आर्य - सभ्यता की अमूल्य - निधि सी बनी।
वह भारत - सुत - सुख - साधन वर - व्योम में।
है लोकोत्तर ललित चाँदनी सी तनी ॥५०॥

उसके सारे - भाव भव्य हैं बन गये।
पाया उसमें लोकोत्तर - लालित्य है।
इन्दु कला सी है उसमे कमनीयता।
रचा गया उस पर जितना साहित्य है ॥५१॥

उसकी परम - अलौकिक आभा के मिले।
दिव्य बन गई हैं कितनी ही उक्तियाँ॥
स्वर्णाक्षर हैं मसि - अंकित - अक्षर बने ।
मणिमय है कितने ग्रंथो की पंक्तियाँ ॥५२॥

आज भी अमित - नयनों की वह दीप्ति है।
आज भी अमित - हृदयों की वह शान्ति है।
आज भी अमित तम - भरितों की है विभा।
आज भी अमित - मुखड़ों की वह कान्ति है ॥५३॥