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पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/३४५

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वैदेही-वनवास

मुनि - पुंगव ; रामायण की बहु - पंक्तियाँ।
पाकर उसकी विभा जगमगाई अधिक ।।
कृति - अनुकूल ललिततम उसके ओप से।
लौकिक बाते भी बन पाई अलौकिक ॥४४||

कुलपति - आश्रम के छात्रों ने लौटकर।
दिव्य - ज्योति - अवलम्वन से गौरव - सहित ॥
वह आभा फैलाई निज निज प्रान्त में।
जिसके द्वारा हुआ लोक का परम - हित ॥४५॥

तपस्विनी - छात्राओं के उद्बोध से।
दिव्य ज्योति - बल से बल सका प्रदीप वह ।।
जिससे तिमिर - विदूरित बहु - घर के हुए।
लाख लाख मुखड़ों की लाली सकी रह ॥४६||

ऋषि, महर्पियों, विबुधों, कवियों, सज्जनों।
हृदयों में बस दिव्यं - ज्योति की दिव्यता ॥
भवहित - कारक सद्भावों मे सर्वदा।
भूरि भूरि भरती रहती थी भव्यता ॥४७॥

जनपदाधि - पतियों नरनाथों - उरों में।
दिव्य - ज्योति की कान्ति वनी राका - सिता॥
रंजन - रत रह थी जन जन की रंजिनी ।
सुधामयी रह थी वसुधा मे विलसिता ॥४८