दमक-दमक कर विपुल-कलस जो कला दिखाते ।
उसे देख रवि ज्योति दान करते न अघाते ।।
दिवस काल में उन्हें न किरणे तज पाती थी।
आये संध्या-समय विवश वन हट जाती थी॥८॥
हिल हिल मंजुल-ध्वजा अलौकिकता थी पाती ।
दर्शक-दृग को बार वार थी मुग्ध वनाती ।।
तोरण पर से सरस-वाद्य ध्वनि जो आती थी।
मानों सुन वह उसे नृत्य-रत दिखलाती थी॥९॥
इन धामों के पार्श्व-भाग में बड़ा मनोहर ।
एक रम्य-उपवन था नन्दन-वन सा सुन्दर ।
उसके नीचे तरल - तरंगायित सरि-धारा ।
प्रवह-मान हो करती थी कल-कल-रव न्यारा ॥१०॥
"उसके उर मे लसी कान्त-अरुणोदय-लाली ।
किरणों से मिल दिखा रही थी कान्ति-निराली ॥
कियत्वाल उपरान्त अंक सरि का हो उज्वल ।
लगा गमगाने नयनों में भर कौतूहल ॥११॥
उठे 'बुलबुले कनक-कान्ति से कान्तिमान वन ।
लगे दिखाने सामूहिक अति - अद्भुत - नर्तन ।।
उठी तरंगें रवि कर का चुम्वन थी करती।
पाकर मंद - समीर विहरती उमग उभरती ॥१२॥
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